मेवाड़ का इतिहास

मेवाड़ का इतिहास:—

✦ रावल जैत्रसिंह (1213—1250ई.)—

  • जैत्रसिंह ने मेवाड़ की प्रतिष्ठा पुन: स्थापित की, उसने परमारों से चितौड़ छीनकर उसे अपनी राजधानी बनाया।
  • 1227 ई. में ‘भूताला के युद्ध’ में दिल्ली के गुलाम वंश के सुल्तान इल्तुतमिश की सेना को परास्त किया जिसका वर्णन जयसिंह सूरी के ग्रंथ ‘हम्मीर मदमर्दन’ में मिलता है।
  • ‘हम्मीर मदमर्दन’ ग्रंथ में इल्तुतमिश को को हम्मीर कहा गया है।
  • चीरवा के शिलालेख में वर्णित है कि ”जैत्रसिंह इतना शक्तिशाली था कि मालवा, गुजरात ,मारवाड़, जांगल तथा दिल्ली के शासक उसको पराजित नहीं कर सके।”
  • 1248 ई. में उसने सुल्तान नसीरूद्दीन महमूद की सेना को भी परास्त किया। उसने आहड़ को चालुक्यों से मुक्त करवाया एवं वागड़,कोटड़ा आदि स्थानों को अपने साम्राज्य में सम्मिलित किया।
  • मदन और बालाक उसके योग्य सैन्याधिकारी थे जिन्होंने अपने बल और शौर्य से मेवाड़ राज्य की सीमा सुदूर मत्स्य तथा मालवा तक प्रसारित कर दी थी।
  • जैत्रसिंह का उत्त्राधिकारी तेजसिंह(1250—1273​ ई.)हुआ। जिसकी पत्नी जेतलदेवी ने चितौड़गढ़ में श्याम पार्श्वनाथ मंदिर का निर्माण करवाया।
  • ​तेजसिंह के शासनकाल में 1260 ई. में आहड़ कमलचन्द्र द्वारा राजस्थान का ताड़पत्र पर चित्रित प्रथम ग्रंथ ‘श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र चूर्णि’ चित्रित किया गया।
    •इसका उत्तराधिकारी समर सिंह (1273—1302ई.) था।
    ✦ रावल रतनसिंह (1302—1303ई.)—
  • रावल रतनसिंह को 1303 ई. में दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण का सामना करना पड़ा। जिसका कारण अलाउद्दीन की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा व चितौड़ की सैनिक एवं व्यापारिक उपयोगिता थी।
  • गुजरात, मालवा, मध्यप्रदेश, संयुक्त प्रांत, सिंध आदि भागों के व्यापारिक मार्ग चितौड़ से होकर गुजरते थे।
  • 1540 ई.में म​लिक मोहम्मद जायसी द्वारा लिखित ‘पदमावत’ में अलाउद्दीन खिलजी के चितौड़ पर आक्रमण का कारण रावल रतनसिंह की पत्नी पद्मिनी को प्राप्त करना बतलाया गया है।
  • अलाउद्दीन की सेना से लड़ते हुए रत्नसिंह और उसके सेनापति गोरा और बादल वीरगति को प्राप्त हुए।
  • रानी पद्मिनी ने 26 अगस्त,1303 को 1600 क्षत्राणियों के साथ जौहर कर ​लिया, जो चितौड़ का पहला साका (जौहर+केसरिया)कहलाता है।
    •अलाउद्दीन के चितौड़ आक्रमण के समय अमीर खुसरो साथ थे, जिन्होंने अपने ग्रंथ ‘तारीख ए अलाई’ (खजाइन उल फुतूह) में इस आक्रमण का आंखों देखा वर्णन लिखा।
  • उलाउद्दीन ने अपने पुत्र खिज्रखां को चितौड़ का प्रशासक नियुक्त कर चितौड़ का नाम खिज्राबाद कर दिया।
  • धाईबी पीर की दरगाह (चितौड़) के लेख में चितौड़ का नाम खिज्राबाद मिलता हैं।
    •खिज्रखां 1311 ई. तक चितौड़ मे रहा और बाद में जालौर के कान्हड़देव का भाई मुंछाला मालदेव चितौड़गढ़ का प्रशासक रहा। रतनसिंह मेवाड़ के गुहिल वंश की रावल शाखा का अंतिम शासक था।
  • 2018 में रिलीज हुई निर्देशक संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘पद्मावत’ में अलाउद्दीन के चितौड़ आक्रमण और पद्मिनी के जौहर का चित्रण है, वो विवादास्पद मानी गई है।

✦ राणा हम्मीर(1326—1364ई.):—

  • सिसोदा ठिकाने के जागीरदार हम्मीर ने 1326 ई. में चितौड़ पर अधिकार कर गुहिल वंश की पुनर्स्थापना की।
  • सिसोदे का जागीरदार होने से उसे सिसोदिया कहा गया।
  • उसके बाद मेवाड़ के सभी शासक सिसोदिया कहलाते हैं।
  • अब गुहिल वंश सिसोदिया वंश के नाम से जाना जाने लगा।
  • हम्मीर राणा शाखा से सम्बन्धित था। इसलिए इसके बाद के मेवाड़ के सभी शासक राणा अथवा महाराणा कहलाते हैं।
  • हम्मीर को ‘मेवाड़ के उद्धारक’ की संज्ञा दी जाती है।
  • कुम्भलगढ़ शिलालेख में हम्मीर को विषमघाटी पंचानन कहा गया।
  • हम्मीर ने सिंगोली (बांसवाड़ा) के युद्ध में मुहम्मद बिन तुगलक की सेना को परास्त किया। उसने चितौड़ में अन्नपूर्णा माता का मंदिर बनवाया।
  • सिसोदे का जागीरदार होने से उसे सिसोदिया कहा गया।

✦ महाराणा क्षेत्रसिंह (1364—1382 ई.) —

  • महाराणा क्षेत्रसिंह, राणा हम्मीर की सोनगरा रानी की संतान थे।
  • इन्हें महाराणा खेता, खेतसी, खेतल आदि नामें से जाना जाता है।
  • महाराणा मोकल द्वारा बनाए गए बापी कुंड के पत्थर में महाराणा क्षेत्रसिंह को क्षत्रियवंशमंडलमणि की उपाधि दी गई है।
  • क्षेत्रसिंह ने अजमेर, जहाजपुर, मांडलगढ़ व छप्पन को मेवाड़ में मिला लिया।
  • क्षेत्रसिंह ने मालवा के दिलावर खां गोरी को परास्त कर भविष्य में होने वाले मालवा — मेवाड़ के संघर्ष का सूत्रपात किया।
  • क्षेत्रसिंह बूंदी विजय के प्रयास में मारा गया।

✦ महाराणा लक्षसिंह/ लाखा (1382—1421 ई.):—

  • महाराणा लाखा क्षेत्रसिंह का पुत्र और उत्तराधिकारी था, जो 1382 ई. में मेवाड़ का शासक बना।
  • उसके साथ बूंदी के नकली दुर्ग की कथा जुड़ी हुई है, जिसकी रक्षा के लिए कुम्भा हाड़ा ने अपने प्राणों की आहुति दी थी।
  • जावर की चांदी की खान इसके समय में खोजी गई। जावर खान में सीसा भी पाया जाता है।
  • इनके शासनकाल में पिछोला झील छीतर नामक बंजारे के द्वारा बनवाई गई।
  • इनके दरबार में संस्कृत कवि झोटिंग भट्ट व धनेश्वर भट्ट को आश्रय प्राप्त था।
  • मारवाड़ के रणमल की बहन हंसाबाई का विवाह लाखा के पुत्र चुण्डा के साथ होना था, मगर परिस्थितिवश या शर्तानुसार यह विवाह लाखा के साथ संपन्न हो गया जिससे उसके योग्य पुत्र ‘चुण्डा’ को राज्याधिकार से वंचित होना पड़ा।
  • चुण्डा को मेवाड़ का ‘भीष्म पितामह’ भी कहा जाता है।
    नोट — राव चण्डा अलग हैं उन्हें भीष्म पितामह नहीं कहा जाता है।
  • शर्त यह थी कि राणा लाखा व हंसाबाई की संतान मेवाड़ का शासन संभालेगी/संभालेगा। और ये संतान था/थी — मोकल

✦ महाराणा मोकल (1421—1433 ई.) :—

• मोकल लक्षसिंह व हंसाबाई का पुत्र था।
• महाराणा लाखा के देहान्त के समय मोकल लगभग 12 वर्ष का था जिसके कारण राज्य का सभी कार्य बड़ी कुशलता से उसका भाई चूंडा चलाता रहा।
• परन्तु मोकल की माता हंसाबाई को धीरे — धीरे व्यर्थ ही चूंडा पर शक होने लगा।
• जब हंसाबाई की मनोवृत्ति का आभास चूंडा को हुआ तो चूंडा ने राज्य त्याग कर दिया और मांडू के दरबार में आश्रय प्राप्त किया।
• हंसाबाई ने चूंडा के जाते ही मारवाड़ से अपने भाई राठौड़ रणमल को बुला लिया। इस तरह मारवाड़ के शासकों का मेवाड़ में इंटरफेयर हो गया।
• अत: मोकल के शासन के प्रारंभिक वर्षों में इसके मामा राठौड़ रणमल का प्रभाव था।
• मोकल ने 1428 ई. में रामपुरा (भीलवाड़ा) के युद्ध में नागौर के फिरोज खां को परास्त किया।
• मोकल के दरबारी कवि योगेश्वर व भट्टविष्णु थे तथा दरबारी शिल्पी मना, फना और विसल थे।
• उसने चितौड़ में द्वारिकानाथ मंदिर का निर्माण करवाया तथा परमार भोज द्वारा बनवाये गये त्रिभुवन नारायण मंदिर का जीर्णोद्वार करवाया और इस मंदिर का परकोटा बनवाया।
• इसलिए इस मंदिर को ‘मोकल का मंदिर’/समिद्धेश्वर मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।
• 1433 ई. में महाराणा खेता / क्षेत्रसिंह की उपपत्नी के पुत्र अर्थात् मोकल ने चाचाओं (चाचा व मेरा) ने झीलवाड़ा(तहसील — कुंभलगढ़, जिला राजसंमंद) में मोकल की ने सरदार महपा पंवार के साथ मिलकर हत्या कर दी।

✦ महाराणा कुम्भा (1433—1468 ई.):—

• कुम्भा, महाराणा मोकल एवं सौभाग्य देवी का ज्येष्ठ पुत्र था, जो 1433 ई.में मेवाड़ का शासक बना।
• उसने अपनी सूझबूझ एवं योग्यता से राज्य की आंतरिक स्थिति को सुदृढ़ किया।
• राठौड़ों का मेवाड़ पर प्रभाव समाप्त कर सामंतों का विश्वास अर्जित किया।
• कुम्भा ने चितौड़ एवं कुम्भलगढ़ को अपनी शक्ति का केन्द्र बनाया।
• रणकपुर के शिलालेख के अनुसार महाराणा कुम्भा ने सांगरपुर, नागौर, गागरोन, नरायना, अजयमेरू, मण्डोर, माण्डलगढ़, बूंदी, एवं आबू पर अधिकार कर राज्य का विस्तार किया।
• 1437 ई. में सारंगपुर के युद्ध में मालवा के शासक महमूद खिलजी प्रथम को परास्त कर कुम्भा ने बंदी बना लिया।
• इस विजय के उपलक्ष में कुम्भा ने कीर्ति स्तम्भ का निर्माण (1440—1448) करवाया, इसे महाराणा ने अपने इष्टदेव विष्णु के निमित्त बनवाया था।
• कीर्ति स्तम्भ भीतर और बाहर मूर्तियों से लदा हुआ है, इसलिए इसे मूर्तिकला का संग्रहालय और ‘मूर्तिकला का विश्वकोष’ या मूर्तिकला का अजायबघर कहा जाता है।
• अबुल फजल ने इस घटना का वर्णन अकबरनामा में किया है।
• 1443 ई. में महमूद खिलजी प्रथम ने कुम्भलगढ़ पर आक्रमण किया, मगर सफलता नहीं मिली।
• नागौर के उत्तराधिकार को लेकर मेवाड़ व गुजरात में युद्ध हुआ।, जिसमें गुजरात की पराजय हुई।
• 1438—39 ई. में कुम्भा ने मारवाड़ से मण्डोर छीन लिया, परन्तु बाद में संधि कर अपने पुत्र रायमल का विवाह मारवाड़ की राजकुमारी से कर दिया।
• 1457—58 ई. में गुजरात व मालवा के शासकों ने मेवाड़ पर आक्रमण किया, मगर कुम्भा की कुटनीति से दोनों शासकों में मतभेद पैदा होने के कारण वे विशेष सफलता प्राप्त नहीं कर सके।
• बाबर ने अपनी आत्मकथा में कुम्भा का उल्लेख किया है।
• ऐसा माना जाता है कि उसने 32 दुर्गो का निर्माण करवाया, जिनमें सिरोही, बैराठ, अचलगढ़, एवं कुम्भ्लगढ़ के दुर्ग प्रसिद्ध हैं।
• कुम्भलगढ़ का दुर्ग अपनी विशेष भौगोलिक स्थिति एवं बनावट के कारण प्रख्यात है, कुम्भलगढ़ दुर्ग का शिल्पी मण्डन था।
• किले के अन्दर एक लघु दुर्ग है जिसे ‘कटारगढ़’ के नाम से जाना जाता है।
• इस दुर्ग के बारे में अबुल फजल ने लिखा है कि, ” यह इतनी ऊंचाई पर स्थित है कि ऊपर से देखने पर पगड़ी भी सिर से नीचे गिर जाती है।”
• कुम्भा ने चितौड़ में कुम्भस्वामी तथा श्रृंगारचौरी का मंदिर (जैन मंदिर), एकलिंगजी के मीरा मंदिर एवं रणकपुर के मंदिर बनवाये, जो अपनी विशालता एवं तक्षणकला के कारण विलक्षण हैं।
• कुम्भा एक विद्वान एवं विद्यानुरागी शासक था।
• कुम्भाकालीन, कान्ह व्यास रचित ‘एकलिंग महात्म्य’ से ज्ञात होता है कि वह वेद, स्मृति, मीमांसा, उपनिषद्, व्याकरण एवं राजनीति में रूचि रखता था।
• कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति में कुम्भा द्वारा विरचित ग्रंथों का उल्लेख मिलता है।
• संगीतराज, संगीत मीमांसा एवं सूड प्रबन्ध इसके द्वारा रचित संगीत ग्रंथ थे।
• ऐसा माना जाता है कि कुम्भा ने चण्डीशतक की व्याख्या, गीत गोविन्द और संगीत रत्नाकर पर टीका लिखी थी।
• ‘नृत्यरत्नकोष’ में कुम्भा ने नाट्यकला का वर्णन किया है।
• ‘कामराज रतिसार’ ग्रंथ भी कुम्भा की रचना माना जाता है।
• कुम्भा के काल में कवि अत्रि और महेश ने कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति की रचना की।
• तत्कालीन साहित्यिक ग्रंथों जैसे गीत गोविंद टीका और कीर्तिस्त्म्भ प्रशस्ति में महाराणा कुम्भा को महाराजाधिराज, रावराय, राणेराय, दानगुरू, राजगुरू, परमगुरू, हालगुरू, अभिनवभरताचार्य, हिन्दू सुरताण आदि विरूदों से विभूषित किया गया।
• सोम सुंदर, मुनिसुंदर, जयंचद सूरि, सोमदेव, भुवनचन्द, सूरि, सुंदरसूरि, सुंदरगणि, टिल्ला भट्ट, नाथा, अत्रि, महेश आदि ​​​​विद्वान कुम्भा के दरबार की शोभा बढ़ाते थे।
• उसने सतत् युद्ध कर दृढ़ता से देश की रक्षा की एवं साथ ही साहित्य एवं कला को भी पोषित किया।
• कुम्भा वीणा बजाने में निपुण था।
• जीवन के अंतिम दिनों में कुम्भा को उन्माद रोग हो गया।
• ऐसी स्थिति में 1468 ई. में एक दिन मामादेव के कुण्ड के निकटवर्ती जलाशय (कुम्भलगढ़ दुर्ग में) जब कुम्भा बैठा हुआ था, तब उसके पुत्र उदा ने उसकी हत्या कर दी।

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                                                  मेवाड़ का इतिहास

कुम्भा की उपाधियों (विरूदों) का अर्थ:—

अभिनवभरताचार्य              ——              संगीत ग्रंथों का रचयिता होने के कारण

हालगुरू/शैलगुरू              ——             पहाड़ी दुर्गों का विजेता होने के कारण

छापगुरू                    ——              छापामार युद्ध करने के कारण

हिन्दू सुरताण                ——               मुस्लिम शासकों द्वारा दी गई उपाधि

दानगुरू                    ——               दानी शासक होने के कारण

रायरासो, राणे रासो, रायरायण   ——               विद्वानों का आश्रयदाता होने के कारण

अश्वपति                    ——               कुशल घुड़सवार

नरपति                    ——                मानवों में श्रेष्ठ

• कुम्भा के बाद उदा मेवाड़ का शासक (1468—1473 ई.) बना, जिसे मेवाड़ का पितृहन्ता शासक कहा जाता है।

• कुम्भा की हत्या के कारण उदा मेवाड़ में अलोकप्रिय हो गया।

• उसके भाई रायमल ने उसे दाड़िमपुर के युद्ध में परास्त किया।

• उदा मालवा की ओर भाग गया, जहां बिजली गिरने से उसकी मृत्यु हो गई।

• उदा के बाद रायमल (1473—1509 ई.) मेवाड़ का शासक बना, उसने चितौड़ में अद्भुतजी के मंदिर का निर्माण करवाया।

• रायमल की पत्नी श्रृंगारदेवी ने घोसूण्डी की बावड़ी (चितौड़)  का निर्माण करवाया।

✦ महाराणा सांगा (1509—1528 ई.):—

• इतिहास में ‘हिन्दुपत’ के नाम से प्रसिद्ध महाराणा सांगा 1509 ई. में मेवाड़ का शासक बना।

• उस समय मेवाड़ चारों ओर से शत्रुओं से घिरा हुआ था।

• दिल्ली, गुजरात एवं मालवा के शासक कभी भी मेवाड़ की स्वतंत्रता के लिए खतरा बन सकते थे।

• अत: सांगा ने सिरोही, वागड़ एवं ईडर के शासकों को अपना मित्र बनाकर अपनी स्थिति मजबूत की।

• ईडर के उत्तराधिकार मामले को लेकर गुजरात एवं मेवाड़ में वैमनस्य हो गया।

• 1520 ई. में महाराणा सांगा ने गुजरात की सेना को परास्त किया।

• मालवा का शासन मेदिनी राय नामक राजपूत सरदार के हाथ में था।

• मालवा के अमीरों ने गुजरात की सहायता से मेदिनीराय को भगा दिया।

• मेदिनीराय राणा सांगा की शरण में आ गया, जिससे मालवा एवं मेवाड़ में 1519 ई. में गागरोन का युद्ध हुआ।

• मगर मालवा का सुल्तान महमूद खिलजी—द्वितीय पराजित हुआ और राणा द्वारा बंदी बना लिया गया।

• थोड़े समय बाद राणा ने उसे मुक्त कर दिया।

• 1517 ई. में महाराणा सांगा ने खातौली (वर्तमान में कोटा जिले में) के युद्ध में दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी को परास्त किया।

• इब्राहिम लोदी को पराजित करने से राणा की प्रतिष्ठा बढ़ गई और राणा सांगा उत्तर भारत का शक्तिशाली शासक बन गया।

• 1526 ई. में बाबर ने पानीपत के युद्ध में इब्राहिम लोदी को परास्त कर आगरा पर अधिकार कर लिया।

• उसने राणा सांगा पर विश्वासघात का आरोप लगाकर उसके विरूद्ध कूच किया।

• बाबर अपनी आत्मकथा में लिखता हैं कि ”राणा सांगा ने उसे इब्राहिम लोदी के विरूद्ध सहायता का वचन दिया जिसको उसने पुरा नहीं किया।”

• मगर इस आरोप की पुष्टि नहीं होती है।

• चूंकि दोनों ही शासक शक्तिशाली एवं महत्वाकांक्षी थे।

• अत: दोनों के मध्य युद्ध अवश्यम्भावी था।

• 17 मार्च, 1527 को खानवा के मैदान में बाबर और राणा सांगा के बीच युद्ध हुआ।

• तोपखाने एवं तुलुगमा युद्ध पद्धति के कारण बाबर की विजय हुई।

• राणा सांगा युद्ध में घायल हुआ एवं युद्ध के मैदान से दूर ले जाया गया।

• जब राणा सांगा ने अपनी पराजय का बदला लिये बिना चित्तौड़ लौटने से इनकार कर दिया तब उसके सामंतों ने जो युद्ध नहीं करना चाहते थे, सांगा को विष दे दिया।

• जिसके फलस्वरूप 30 जनवरी, 1528 को बसवा (दौसा) में सांगा की मृत्यु हो गई।

• माण्डलगढ़ में सांगा का अंत्येष्टि संस्कार किया गया, वही उनका समाधि स्थल बना हुआ है।

• महाराणा सांगा को विष दिए जाने के स्थान व उनकी अन्त्येष्टि स्थल के बारे में विभिन्न मत हैं।

• डॉ. राजेन्द्र शंकर भट्ट अपनी पुस्तक ‘महाराणां सांगा एवं भक्त शिरोमणी युवरानी मीरा’ के पृ. 170 पर लिखिते हैं कि ”विष के अस्वाभाविक और अनाचारी मृत्यु प्राप्त महाराणा का दाहकर्म एरिच में ही कर दिया गया। वर्तमान उत्तरप्रदेश के झांसी जिले के एरिच कस्बे के पास बेतवा नदी के सूडीघाट पर महाराणा सांगा की छतरी, स्मारक जिसे लोग सांगा की समाधि कहते है बनी हुई है जो उनके दाह स्थल की द्योतक है उस समय की सामरिक स्थिति में महाराणा के शव को कहीं दूर ले जाना संभव नहीं था। जिन्होंने ऐसा जघन्य कार्य किया था वे विष जनित शव को मेवाड़ की सीमा में ले जाने का दुस्साहस नहीं कर सकते थे। दाहकर्म के बाद, सांगा की अस्थियां मेवाड़ की सीमा में मांडलगढ़ लायी गई और वहीं शेष संस्कार किये गये, जो मेवाड़ के महाराणाओं की परम्पराओं के अनुसार थे। इनकी स्मृति में एक ओर छतरी बनवाई गयी जो पवित्र स्थल के रूप में अब भी माण्डल गढ़ में प्रकाशमान है।”

• डॉ. ओझा ने लिखा है कि ”महाराणा ने चन्देरी के लिए प्रस्थान किया तथा रास्ते में कालपी के निकट एरिच नामक स्थान पर रूके, जहां पर उनको विष दिया गया। वहां पर उस जहर का प्रभाव बढ़ने लगा तो सरदार उनको लेकर लौटने लगे और मार्ग में ही कालपी नामक स्थान आता है जहां पर महाराणा की मृत्यु हो गयी।”

• मुंशी देवीप्रसाद लिखते हैं ” महाराणा एरिच में बीमार पड़े और मृत्यु को प्राप्त हो गये।” शारदा का कहना है कि महाराणा की मृत्यु बसवा में ही हुई।

• डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने कालपी में महाराणा की मृत्यु और उनके शव को माण्डलगढ़ ले जाना लिखा है, जहां उनका समाधि स्थल बना हुआ है।

• महाराणा सांगा वीर, उदार और न्यायपरायण शासक था।

• राजपूताने के शासक उसकी अधीनता में लड़ना अपना गौरव समझते थे।

• सांगा अंतिम हिन्दू राजा था, जिसके सेनापरित्व में अधिकांश राजपूत राजवंश विदेशियों को भारत से निकालने के लिए सम्मिलित हुए।

• उसने गुजरात, मालवा एवं दिल्ली के शासकों को परास्त कर मेवाड़ का गौरव बढ़ाया।

• बा​बर ने सांगा के संदर्भ में लिखा है कि ”उसका मुल्य दस करोड़ की आमदनी का था, उसकी सेना में एक लाख सवार थे, उसके साथ सात राजा, नौ राव और एक सौ चार छोटे सरदार रहा करते थे।”

• सांगा ने अपने देश की रक्षा में एक आंख, एक हाथ और एक पैर खो दिया, उसके शरीर पर अस्सी घाव थे।

• उसकी इसी स्थिति के कारण कर्नल जेम्स टॉड ने राणा सांगा को ‘सैनिक का भग्नावशेष कहा है।

• खानवा के युद्ध में राणा सांगा की ओर से चंदेरी के मेदिनीराय, आमेर के पृथ्वीराज, जोधपुर के राठौड़ रायमल और रतनसिंह कुंवर मालदेव (डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘मेवाड़—मुगल संघर्ष’ में मारवाड़ के कुंवर मालदेव का भी खानवा के युद्ध में भाग लेना लिखा है), सादड़ी के झाला अज्जा, मेवात के हसन खां मेवाती, महमूद लोदी, जालौर के अखैराज सोनगरा, बीकानेर के कुंवर कल्याणमल, वागड़ के उदयसिंह, देवलिया के बाघसिंह, सिरोही के ……….. देवड़ा ऊपरमाल  के अशोक परमार ने भाग लिया।

• राणा सांगा की मृत्यु के पश्चात राणा रतनसिंह (1528—1531 ई.) व उसके पश्चात राणा विक्रमादित्य मेवाड़ का शासक बना।

• भक्त कवयित्री मीरां के पति राजकुमार भोज सांगा के बड़े पुत्र थे, जिनका निधन एक युद्ध में घायल होने से सांगा के जीवनकाल में ही हो गया था।

✦ महाराणा विक्रमादित्य (1531—1536 ई.):—

  • विक्रमादित्य राणा सांगा और कर्मावती/कर्णावती का पुत्र था।
  • इसके शासन काल में 1534 ई. में गुजरात के शासक बहादुरशाह ने चितौड़ पर आक्रमण किया।
  • चितौड़ की रक्षा हेतु कर्मावती ने हुमायूं के पास राखी भेजकर सहायता की याचना की, परंतु समय पर ​सहायता न मिलने के कारण कर्मावती ने अपने दोनों ​पुत्रों विक्रमादित्य और उदयसिंह को अपने मायके (बूंदी) भेजकर चितौड़ की रक्षा का भार देवलिया के ठाकुर बाघसिंह को सौंप दिया।
  • बाघसिंह ने शाही राजचिन्ह धारण कर बहादुरशाह का सामना किया।
  • उसके वीरगति प्राप्त करने पर कर्मावती ने 1300 महिलाओं के साथ जौहर कर लिया।
  • इस घटना को चितौड़ का ‘दूसरा साका’ कहा जाता है।
  • 1536 ई. बनवीर ने विक्रमादित्य की हत्या कर दी।
  • बनवीर सांगा के बड़े भाई पृथ्वीराज की दासी पत्नी से उत्पन्न पुत्र था।
  • इसने चित्तौड़ में नौकोठा महल/नक्लखां महल का निर्माण करवाया।

✦ महाराणा उदयसिंह (1537—1572 ई.):—

  • उदयसिंह को बनवीर से बचाकर कुम्भलगढ़ के ​किले में रखा गया।
  • य​हीं मालदेव के सहयोग से 1537 ई. में उसका राज्याभिषेक हुआ (गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग—I, पृ.289)।
  • बनवीर के विरोधी उदयसिंह के साथ हो गये और राठौड़ सरदारों की सहायता से उदयसिंह ने बनवीर पर आक्रमण कर दिया, जिससे बनवीर या तो मारा गया या भाग (गोपीनाथ शर्मा, राज. का इतिहास, पृ.222)।
  • उदयसिंह ने पाली के अखैराज सोनगरा एवं खैरवा के ठाकुर जैत्रसिंह की पुत्रियों से विवाह कर अपनी स्थिति को मजबूत किया।
  • 1544 ई. में शेरशाह के चितौड़ पर आक्रमण करने की ख​बर पाकर किले की कुंजियां शेरशाह के पास भिजवा दी।
  • जिससे शेरशाह ने किले पर आक्रमण नहीं किया व ख्वास खां को चितौड़ में अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया।
  • उदयसिंह ने 1559 ई. में अरावली की उपत्यकाओं में उदयपुर नगर बसाकर उसे अपनी राजधानी बनाया।
  • उदयपुर में उसने उदयसागर झील तथा मोती मगरी के सुंदर महलों का निर्माण करवाया।
  • 1562 ई. में उसने मालवा के पराजित शासक बाज बहादुर व मेड़ता के शासक जयमल को शरण दी।
  • अक्टुबर, 1567 ई. में अकबर ने चितौड़ पर आक्रमण किया।
  • अपने सरदारों की सलाह पर वह किले की रक्षा का भार जयमल और फत्ता को सौंपकर गिरवा की पहाड़ियों में चला गया।
  • अकबर ने राणा उदयसिंह को ढूंढ़ने के लिए हुसैन कुली खां को गिरवा की पहाड़ियों में भेजा।
  • रात्रि के समय किले ​की दीवार की मरम्मत करवाते समय जयमल अकबर की संग्राम नाम की बंदूक से घायल हो गया।
  • अत: अगले दिन 24 फरवरी, 1568 की राजपूतों ने केसरिया बाना धारण कर मुगलों से युद्ध किया।
  • जयमल ने कल्ला राठौड़ के कंधे पर बैठकर युद्ध किया और वीरगति को प्राप्त हुआ।
  • कल्ल राठौड़ और फत्ता सिसोदिया भी लड़ते हुए मारे गए।
  • फत्ता की पत्नी फूलकंवर के नेतृत्व में महिलाओं ने जौहर किया, जो चितौड़ का ‘तीसरा साका’ कहलाता है।
  • जयमल, फत्ता और कल्ला राठौड़ की छतरियां चित्तौड़ में बनी हुई हैं।
  • अकबर ने 25 फरवरी, 1568 को चित्तौड़ के किले पर अधिकार करके 30,000 व्यक्तियों का कत्लेआम करवाया।
  • अकबर ने जयमल — फत्ता की वीरता से मुग्ध होकर आगरा के किले के बाहर गजारूढ़ पाषाण मूर्तियां लगवाईं।
  • चित्तौड़ के पतन से महाराणा को बड़ा आघात लगा, वह बीमार रहने लगा और 28 फरवरी, 1572 को होली के दिन गोगुन्दा में महाराणा उदयसिंह की मृत्यु हो गई।

✦महाराणा प्रताप (1572—1597 ई.):—

  • 9 मई,1540 को कुम्भलगढ़ में जन्में प्रताप का 1572 ई. में गोगुन्दा में राज्याभिषेक हुआ।
  • महाराणा उदयसिंह ने जगमाल को अपना उत्तराधिकारी बनाया था, मगर सरदारों ने उसे स्वीकार नहीं किया और प्रताप को गद्दी पर बिठा दिया।
  • मेवाड़ के पहाड़ी प्रदेशों में ‘कीका’ के नाम से विख्यात प्रताप ने अपने पिता के साथ जंगलों, घाटियों एवं पहाड़ों में रहकर कठोर जीवन बिताया।
  • मुगल आक्रमण के कारण राज्य की व्यवस्था संतोषप्रद नहीं थी।
  • मेवाड़ की आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं थी।
  • चित्तौड़, बदनौर, शाहपुरा, रायला आदि मेवाड़ के सीमांत भाग मुगलों के हाथ में चले गये थे, जिससे राज्य की आय और प्रतिष्ठा घट चुकी थी।
  • इन समस्याओं को हल करने के लिये प्रताप के सामने दो मार्ग खुले हुए थे या तो वह अकबर की अधीनता स्वीकार कर सुविधापूर्ण जीवन बिताये या अपना स्वतंत्र अस्तित्व और अपने देश के गौरव की प्रतिष्ठा बनाये रखे।
  • दूसरे विकल्प के लिए उसे अनेक कष्ठ उठाने थे, फिर भी उसने दूसरे विकल्प ‘संघर्ष’ को ही चुना।
  • उसने कुंभलगढ़ को अपना केन्द्र बनाया।
  • अकबर किसी भी तरह मेवाड़ को अपने अधीन करना चाहता था।
  • अत: उसने समझौते के प्रयास किये।
  • 1572 से 1576 ई. के मध्य उसने चार शिष्ट मण्डल क्रमश: जलाल खां, मानसिंह, भगवानदास एवं टोडरमल के नेतृत्व में भेजे।
  • मगर महाराणा ने संधि करने में किसी प्रकार की रूचि नहीं दिखाई।
  • अत: मेवाड़ को मुगल आक्रमण का सामना करना पड़ा।
  • 1576 ई. के प्रारम्भ में अकबर अजमेर पहुंचा और मानसिंह को मेवाड़ अभियान का नेतृत्व सौंपा।
  • 3 अप्रैल, 1576 को मानसिंह अजमेर से ससैन्य रवाना हुआ और माण्डलगढ़ पहुंचा। यहां अपनी सैन्य तैयारी पूरी करने के बाद वह उदयपुर की ओर बढ़ा तथा बनास नदी के तट पर मोमला में अपना सैन्य शिविर लगाया।
  • प्रताप भी अपनी सेना के साथ लोसिंग पहुंच गया।
  • 18 जून, 1576 को खमनौर के पास मुगल सेना व महाराणा प्रताप की सेना के मध्य युद्ध हुआ जो हल्दीघाटी के युद्ध के नाम से प्रसिद्ध है।
  • प्रताप को सेना में हरावल (सेना का अग्रिम दस्ता) की कमान हकीम खां सूरी के हाथ में थी, जबकि मुगल सेना के हरावल में सैय्यद हाशिम बरहा, मुहम्मद बादख्शी आसफ खां और जगन्नाथ कछवाहा जैसे सेनानायक अपनी—अपनी सैनिक टु​कड़ियों के साथ नियुक्त थे।
  • युद्ध के प्रारम्भ में मेवाड़ी सैनिकों के तीव्र आक्रमण और वीरतापूर्ण युद्ध कौशल ने मुगल पक्ष की अग्रिम पंक्ति व बायें पाश्र्व को छिन्न—भिन्न कर दिया।
  • बदायूंनी जो स्वयं मुगल सेना की ओर से लड़ रहा था और अपने ग्रंथ ‘मुन्तखब उत् तवारीख’ में इस युद्ध का प्रत्यक्ष वर्णन किया, लिखता है कि—इस हमले से घबराकर मुगल सेना भेड़ों के झुण्ड की तरह भाग निकली।
  • मुगल सेना को भागते हुए देखकर मिहत्तर खां चिल्लाता हुआ आया कि ”बादशाह सलामत एक बड़ी सेना के साथ स्वयं आ रहे हैं।
  • इसके बाद स्थिति बदल गयी और भागती हुई मुगल सेना नये जोश के साथ लौट पड़ी।”
  • राणा प्रताप चेतक पर सवार होकर शत्रुओं से लोहा ले रहे थे।
  • मुगल सेनापति मानसिंह ‘मदराना’ नामक हाथी पर सवार था।
  • रणछोड़ भट्ट कृत ‘अमर काव्य वंशावली’ के अनुसार प्रताप ने ​बड़े वेग से चेतक के आगे पैरों को मानसिंह के हाथी के मस्तक पर टिका कर भाले से उस पर वार किया।
  • मानसिंह ने हौदे में झुककर अपने को बचा लिया, किन्तु उसका महावत मारा गया।
  • इस हमले में मानसिंह के हाथी की सूंड पर बंधे खंजरों से चेतक का एक पैर कट गया।
  • इस मध्य मुगल सैनिकों ने प्रताप को घेर लिया।
  • प्रताप को शत्रुओं से घिरा देखकर बड़ी सादड़ी के झाला बीदा (जो झाला मन्ना व मान के नाम से भी प्रसिद्ध हैं) ने प्रताप का मुकुट धारण कर लिया और प्रताप को युद्धभुमि से बाहर जाने के लिए विवश कर दिया।
  • झाला बीदा वीरगति को प्राप्त हुआ।
  • राणा प्रताप युद्ध भूमि से बाहर निकलकर गोगुन्दा की ओर चला, मगर टूटी टांग का चेतक उसे अधिक दूर नहीं ले जा सका और घाटी के दूसरे नाके पर अपने स्वामी को शत्रुओं से सकुशल बचाकर दम तोड़ दिया।
  • प्रताप ने स्वयं अपने स्वामिभक्त घोड़े का दाह संस्कार किया।
  • हल्दीघाटी के पास बलीचा गांव में चेतक का समाधि स्थल है।
  • हल्दीघाटी के इस ए​कदिन के युद्ध के परिणाम के सम्बन्ध में विद्वानों में मत विभिन्न्ता है।
  • डॉ.ए.एल. श्रीवास्तव लिखते हैं कि ”मानसिंह की यह लड़ाई अपने प्रारम्भिक उद्देश्य में ही असफल रही थी, यह उद्देश्य महाराणा प्रताप को मारना या बंदी बनाना और मेवाड़ को अपने अधीन करना था।”
  • ‘तबकाते अकबरी’ में निजामुद्दीन लिखता है ”मानसिंह जब शाही दरबार में पहुंचा तो अकबर ने थोड़े समय के लिए उसकी ड्यौढ़ी बंद कर दी, क्योंकि वह राणा को बंदी बनाने व मारने में असफल हुआ था।”
  • इस दृष्टि से कहा जा सकता
    है कि सैनिक दृष्टि से भले ही मुगलों को विजय मिली, मगर उनका उद्देश्य पूरा नहीं हुआ।
  • राजपूतों ने विजयी सेना की ऐसी दुर्दशा की कि वह एक स्थान पर बंदी होकर रह गये और अंत में उन्हें मेवाड़ छोड़ना पड़ा।
  • वर्तमान में हल्दीघाटी के युद्ध के निर्णय को लेकर गहरा विवाद है, परन्तु राजस्थान के कतिपय मूर्घन्य इतिहासकारों का यह दृढ़ मत है कि इस युद्ध में प्रताप की जीत हुई थी और उन्होंने इसके पक्ष में साक्ष्य भी प्रस्तुत किये है।
  • अकबर हल्दीघाटी के युद्ध के परिणाम से संतुष्ट नहीं हुआ और अक्टूबर, 1576 में स्वयं गोगुन्दा पहुंचा।
  • उसने प्रताप को घेरने के कई प्रयत्न किये, मगर असफल रहा।
  • इस युद्ध के बाद प्रताप ने चावण्ड को अपनी राजधानी बनाया।
  • अक्टूबर, 1577 में अकबर ने शाहबाज खां को मेवाड़ भेजा।
  • शाहबाज खां ने कुम्भलगढ़ का घेरा डाल दिया और भयंकर संघर्ष के पश्चात् अप्रैल, 1578 में दुर्ग पर अधिकार कर लिया, मगर प्रताप इससे पूर्व ही दुर्ग छोड़कर निकल गया।
  • दिसम्बर, 1578 में शाहबाज खां दूसरी बार और नवम्बर, 1579 में तीसरी बार मेवाड़ आया, मगर वह प्रताप को पकड़ने में असफल रहा।
  • शाहबाज खां के लौटते ही प्रताप ने अपना प्रभुत्व पुन: स्थापित कर लिया।
  • इसके बाद अकबर ने अब्दुर्रहीम खानखाना को मेवाड़ भेजा।
  • खानखाना ने शेरपुर को अपना ठिकाना बनाकर प्रताप का पीछा करना शुरू किया।
  • 1580 में कुंवर अमरसिंह ने अचानक मुगल शिविर पर आक्रमण करके खानखाना के परिवार की महिलाओं को बंदी बना लिया।
  • महाराणा प्रताप को इस घटनाक्रम की जानकारी मिलने पर मुगल महिलाओं को ससम्मान खानखाना के पास भिजवा ​दिया।
  • जुलाई, 1582 में प्रताप ने ‘दिवेर'(राजसमन्द) की मुगल चौकी पर आक्रमण किया।
  • कुंवर अमरसिंह ने यहां तैनात अकबर के चाचा सुल्तान खां को भाले के एक ही वार से परलोक पहुंचा दिया।
  • दिवेर की विजय के बाद इस ​पर्वतीय भाग पर प्रताप का अधिकार हो गया।
  • कर्नल टॉड ने दिवेर को ‘मेवाड़ का मेरेथान’ कहा है।
  • 1585 ई. के बाद अकबर मेवाड़ की तरफ कोई अभियान नहीं भेज सका।
  • 1585 से 1597 ई. के बीच प्रताप ने चितौड़ एवं माण्डलगढ़ को छोड़कर शेष राज्य पर पुन: अधिकार कर लिया।
  • उसने राज्य में सुव्यवस्था स्थापित की।
  • 19 जनवरी, 1597 को प्रताप की मृत्यु हो गई।
  • चावण्ड के पास ‘बाण्डोली’ नामक गांव में प्रताप का अग्नि संस्कार किया गया।
  • महाराणा प्रताप का नाम राजपूताने के इतिहास में सबसे अधिक सम्मानीय और गौरवान्वित है।
  • वह स्वदेशाभिमानी, स्वतंत्रता का पुजारी, रणकुशल, स्वार्थत्यागी, सच्चा वीर और उदार क्षत्रिय ​था।
  • इन्हीं गुणों के कारण वह अकबर को, जो उस समय संसार का सबसे अधिक शक्तिशाली एवं ऐश्वर्य संपन्न सम्राट था, अपने छोटे से राज्य के बल पर वर्षों तक परेशान करता रहा और अधीनता नहीं मानी।
  • प्रताप के संबंध में कर्नल टॉड लिखते हैं कि आल्पस पर्वत के समान अरावली में कोई भी ऐसी घाटी नहीं, जो प्रताप के किसी न किसी वीर कार्य, उज्ज्वल विजय या उससे अधिक कीर्तियुक्त पराजय से पवित्र न हुई हो।
  • हल्दीघाटी के युद्ध का वर्णन ‘जगन्नाथराय प्रशस्ति’ (1633 ई.) में मिलता है।
  • कर्नल् जेम्स टॉड ने हल्दीघाटी को ‘मेवाड़ की थर्मोपल्ली’ कहा है। (थर्मोपल्ली का युद्ध 480 ई. पू. में यूनान में फारसी आक्रमण के दौरान स्पार्टा के राजा लियोनिडास और फारसी शासक क्षहयार्ष के मध्य हुआ था। मेरेथान का युद्ध 490 ई. पू. में यूनान व फारस के मध्य हुआ, जिसमेंं फारस को हार का सामना करना पड़ा।)
  • हल्दीघाटी के युद्ध को बदायूंनी ने ‘गोगुन्दा का युद्ध’ व अबुल फजल ने ‘खमनौर का युद्ध’ कहा।
  • आसफ खां ने इस युद्ध को ‘जिहाद’ घोषित किया।
  • प्रताप की ओर से पूजा भील के नेतृत्व में भीलों ने मुगलों से छापामार युद्ध किया।
  • हल्दीघाटी के युद्ध में बदायूंनी और अबुल—फजल ने हाथियों की लड़ाई का रोचक वर्णन किया है।
  • राणा प्रताप की ओर से उनका प्रिय हाथी रामप्रसाद और लूणा तथा मूगल पक्ष के गजमुक्त, गजराज और रणमदार हाथियों में भंयकर संघर्ष हुआ।
  • अबुल—फजल लिखता है—”दोनों पक्षों के वीरों ने लड़ाई में जान सस्ती और इज्ज्त महंगी कर दी। जैसे पुरूष वीरता से लड़े वैसे ही हाथी भी लड़े।”
  • हल्दीघाटी के युद्ध में मुगलों ने महाराणा के प्रिय हाथी ‘रामप्रसाद’ को पकड़ लिया और उसे अकबर को भेंट कर दिया, उसका नाम ‘रामप्रसाद’ से ‘पीर प्रसाद’ कर दिया।
  • दुरसा आढ़ा ने प्रताप की प्रशंसा करते हुए लिखा हैं——
    अस लेगो अणदाग, पाघ लेगो अणनामी।
    गौ आड़ा गवडाय, जिको बहतो धुरवामी।।
    नवरोजे नह गयो, नगौ आतसां नवल्ली।
    नगौ झरोखा हेठ, जेथ दुनियाण दहल्ली।।
    गहलोत राणं जीती गयौ, दसण मूंद रसणा डसी।
    नीसास मूक भरिया नयण, सो मृत शाह प्रतापसी।।

✦ महाराणा अमरसिंह (1597—1620 ई.):—

  • अमरसिंह 1597 ई. में मेवाड़ का शासक बना।
  • अमरसिंह ने अपने युवराज काल में ही मुगलों के विरूद्ध अनेक अभियानों में भाग लिया।
  • दिवेर के युद्ध (1582 ई.) में उसने अपनी सूझबूझ एवं वीरता से मुगल सेना को पराजित किया।
  • शासक बनने के उपरांत उसे पुन: मुगल आक्रमणों का सामना करना पड़ा।
  • 1599 ई. में शाहजादा सलीम (जहांगीर) को मेवाड़ पर आक्रमण के लिए भेजा गया, मगर उसे सफलता नहीं मिली।
  • जहांगीर ने शासक बनते ही 1605 ई. में परवेज, आसफ खां, जफर बेग और सगर के नेतृत्व में पुन: मेवाड़ को अपने अधीन करने का प्रयास किया।
  • 1608 ई. में महावत खां को मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए भेजा।
  • 1609 ई. में अब्दुल्ला, 1612 ई. में राजा बासू और 1613 ई. में मिर्जा अजीज कोका को मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए भेजा गया।
  • मगर इन्हें भी विशेष सफलता नहीं मिली।
  • 1613 ई. में जहांगीर स्वयं अजमेर पहुंचा और शाहजादा खुर्रम (शाहजहां) को मेवाड़ अभियान का नेतृत्व सौंपा।
  • खुर्रम एक बड़ी सेना लेकर मेवाड़ की तरफ बढ़ा।
  • उसने मेवाड़ में लुटमार एवं आगजनी द्वारा अकाल की स्थिति पैदा कर दी।
  • मेवाड़ के सामंत युद्धों से ऊब गये थे एवं उनकी जागीरें भी वीरान हो गई थी।
  • अत: उन्होंने कुंवर कर्णसिंह को अपने पक्ष में कर राणा पर मुगलों सं संधि करने का दवाब डाला।
  • सरदारों के दवाब के कारण अमरसिंह को झुकना पड़ा और मुगलों से संधि की स्वीकृति देनी पड़ी।
  • 5 फरवरी, 1615 ई. में मेवाड़—मुगल संधि हुई, जिसमें महाराणा को शाही दरबार में उपस्थित होने से छूट दी गई।
  • मगर युवराज को मुगल दरबार में भेजने की शर्त रखी गई।
  • चित्तौड़ पुन: मेवाड़ को लौटा दिया गया।
  • मगर उसकी मरम्मत नहीं की जा सकती थी।
  • इस प्रकार विगत 90 वर्षों से चले आ रहे मेवाड़—मुगल संघर्ष का अंत हुआ।
  • लेकिन अमरसिंह को इस संधि के कारण काफी आत्मग्लानि हुई और इसके बाद उसने राजकाज में रूचि लेना बंद कर दिया।
  • 26 जनवरी, 1620 को उदयपुर के निकट आहड़ में उसका स्वर्गवास हो गया।
  • ‘अमरसार’ का रचयिता जीवाधार इसका राज्याश्रित था।

✦ महाराणा कर्णसिंह (1620—1628 ई.) :—

  • कर्णसिंह के राज्याभिषेक उत्सव पर जहांगीर ने राणा की पदवी का फरमान, खिलअत आदि भेजे।
  • यह मेवाड़ का पहला शासक था जो शासक बनने से पहले मुगल दरबार में रहा एवं जिसके लिए राणा की पदवी का फरमान भी मुगल दरबार से भेजा गया।
  • 1615 ई. की मेवाड़—मुगल संधि में कर्णसिंह की अहम् भूमिका थी।
  • शासक बनने पर कर्णसिंह ने मुगल ढ़ांचे पर राज्य को परगनों में बांटा और उनके अन्तर्गत कई गांव सम्मिलित किये।
  • इन परगनों में पटेल, पटवारी और चौधरी नियुक्त किये गये।
  • उसने नई बस्तियां बसाई और बेघरबार व्यक्तियों को आर्थिक सहायता दी।
  • इन सुधारों से व्यापार—वाणिज्य को गति मिली तथा राज्य में सुख—शांति स्थापित ​हुई।
  • जब खुर्रम (शाहजहां) ने अपने पिता के विरूद्ध विद्रोह किया, (1623 ई.) तब कर्णसिंह ने उसे पिछोला झील मे महलों मे पनाह देकर माण्डू के मार्ग से दक्षिण भेजने में सहायता दी।
  • 1628 ई. में कर्णसिंह की मृत्यु हो गयी।
  • महाराणा कर्णसिंह ने मुगल संपर्क के कारण अपनी शासन व्यवस्था को नया रूप दिया।
  • उसके निर्माण कार्य में विशेष रूप से कर्ण विलास, दिलखुश महल, बड़ा दरीखाना आदि में भी मुगल स्था​पत्य का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
  • मुगल—मेवाड़ संबंध में कर्णसिंह ने कूटनीति से काम लिया।
  • खुर्रम (शाहजहां) को कुछ समय अपने यहां रखकर उसे अपना आभारी भी बना दिया और उसे अपने यहां से विदा कर वह मुगल सम्राट का कोप भाजन भी नहीं बना।
  • इस प्रकार वह मुगलों के आंतरिक मामलों में रूचि लेने वाला मेवाड़ का प्रथम शासक था।

✦ महाराणा जगतसिंह (1628—1652 ई.) :—

  • महाराणा जगतसिंह ने पिछौला झील मेे जगनिवास नामक महल बनवाये।
  • उसने उदयपुर में जगदीश/जगन्नाथराय मंदिर का निर्माण करवाया तथा इस मंदिर पर ‘जगन्नाथराय प्रशस्ति’ लगवाई जिसकी रचना कृष्णभट्ट ने की थी।
  • जगदीश मंदिर का वास्तुकार भाण था।
  • यह मंदिर नागर शैली की पंचायतन शैली में बना हुआ है।
  • महाराणा जगतसिंह प्रथम ने चित्तौड़ दुर्ग की मरम्मत का कार्य प्रारम्भ करवाया।

✦ महाराणा राजसिंह (1652—1680 ई.) :—

  • 1652 ई. में इसकी गद्दीनशीनी के समय शाहजहां ने राणा का खिताब, पांच हजारी जात एवं पांच हजारी सवारों का मनसब देकर हाथी एवं घोड़े भेजे।
  • राजसिंह ने शासक बनते ही चित्तौड़ दुर्ग की मरम्मत के कार्य को पूरा करने का निश्चय किया।
  • लेकिन मुगल सम्राट ने इसे 1615 ई. की मेवाड़—मुगल संधि की शर्तों के प्रतिकूल मानते हुए इसे ढहाने के लिए तीस हजार सेना के साथ सादुल्ला खां को भेजा।
  • राजसिंह ने मुगलों से संघर्ष करना उचित न समझकर अपनी सेना को वहां से हटा लिया।
  • मुगल सेना चित्तौड़ दुर्ग के कंगूरे एवं बुर्ज गिराकर लौट गयी।
  • 1658 ई. में जब मुगल शाहजादों में उत्तराधिकार का युद्ध छिड़ा, तब औरंगजेब एवं दारा ने महाराणा को अपनी—अपनी ओर से युद्ध में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया।
  • मगर महाराणा किसी भी पक्ष का समर्थन नहीं करना चाहता था, क्योंकि यदि विपक्ष विजयी हो जाय तो वह मेवाड़ के लिए समस्या खड़ी कर सकता था।
  • अत: महाराणा टालमटोल करता रहा।
  • यहां तक कि अव्यवस्था का फायदा उठाकर टीका दौड़ के बहाने महाराणा ने टोडा, मालपुरा, टोंक, चाकसू, लालसोट की लूटा एवं मेवाड़ के खोये हुए भागों पर पुन: अधिकार कर लिया।
  • किशनगढ़ की राजकुमारी चारूमति से विवाह (1660 ई.) कर राजसिंह ने बादशाह औरंगजेब को भी अप्रसन्न् किया।
  • मुगल—मारवाड़ संघर्ष छिड़ने पर महाराणा राजसिंह ने मारवाड़ का साथ दिया।
  • सिसोदिया राठौड़ गुट बनने से सम्राट औरंगजेब बड़ा चिन्तित हुआ और उसने राजपूतों को नष्ट करने में अपनी शक्ति लगा दी।
  • युद्ध से मेवाड़ के कई इलाके वीरान हो गये।
  • राजसिंह ने शाहजादे अकबर को अपनी ओर मिलाकर मुगल शक्ति को कमजोर करने का प्रयास किया।
  • परंतु औरंगजेब ने छल से राजकुमार अकबर और राजपूतों में फूट डलवा दी।
  • 1680 ई. में राजसिंह की मृत्यु हो गयी।
  • राजसिंह के सेनापति ओर सलूम्बर (उदयपुर) के रावत रतनसिंह चूण्डावत का विवाह बूंदी हाड़ा सरदार संग्रामसिंह की पुत्री सलह कंवर के साथ हुआ था।
  • विवाह के दो दिन बाद ही जब रतनसिंह को युद्ध लड़ने जाना पड़ा तो पत्नी के प्रति मोह के वशीभूत होकर उसने पत्नी से निशानी (सेनानी) लाने के लिए एक सेवक भेजा।
  • तब सलह कंवर ने निशानी के रूप में अपना सिर भिजवा दिया था।
  • यही सलह कंवर इतिहास में ‘हाड़ी रानी’ के नाम से विख्यात है।
  • उसने (राजसिंह) अपनी प्रजा में सैनिक और नैतिक प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से ‘विजय कटकातु’ की उपाधि धारण की।
  • राजसिंह की पत्नी रामरसदे ने उदयपुर में जयाबावड़ी/त्रिमुखी बावड़ी का निर्माण करवाया।
  • अकाल प्र​बंधन के उद्देश्य से राजसिंह ने गोमती नदी के पानी को रोककर राजसमंद झील का निर्माण करवाया तथा इस झील के उत्तरी किनारे नौ चौकी नामक स्थान पर ‘राज प्रशस्ति’ नामक शिलालेख लगवाया।
  • संस्कृत भाषा में लिखित राजप्रशस्ति शिलालेख की रचना ‘रणछोड़ भट्ट’ द्वारा की गई थी।
  • य​ह प्रशस्ति 25 काले संगमरमर की शिलाओं पर खुदी हुई है।
  • इसे संसार का सबसे बड़ा शिलालेख माना जाता हैं।
  • राजप्रशस्ति में मेवाड़ का प्रामाणिक इतिहास और ऐतिहासिक मुगल—मेवाड़ संधि (1615 ई.) का उल्लेख मिलता है।
  • इस प्रशस्ति से मेवाड़ के शासकों की तकनीकी योग्यता की जानकारी मिलती है।
  • राजसिंह के शासनकाल में दाऊजी महाराज/ दामोदर जी महाराज 1669—70 ई. में मथुरा से श्रीनाथ जी और द्वारिकाधीश’ की मूर्ति लाये थे।
  • राजसिंह ने श्रीनाथ जी ​को सिहाड़ (आधुनिक नाथद्वारा) में 1671 ई. में तथा द्वारिकाधीश को कांकरोली (राजसमंद) में प्रतिष्ठित करवाया, उसने अम्बिका माता मंदिर (उदयपुर) भी बनवाया।

✦ महाराणा जयसिंह (1680—1698 ई.) :—

  • महाराणा जयसिंह 1680 ई. में मेवाड़ की गद्दी पर बैठा।
  • जिस समय इसने सिंहासन ग्रहण किया उस समय मेवाड़—मुगल संघर्ष चल रहा था।
  • मेवाड़ की स्थिति दिनों—दिन बिगड़ती जा रही थी।
  • महाराणा जयसिंह युद्ध बंद करना चाहता था।
  • मुगल सम्राट औरंगजेब भी महाराणा से संधि करना चा​हता था, क्योंकि उसे दक्षिण भारत पर ध्यान देना था।
  • अत: 24 जून, 1681 को मुगल सम्राट और महाराणा जयसिंह मे मध्य संधि हो गई।
  • संधि के परिणामस्वरूप पुर, माण्डल और बदनौर जजिया के बदले मुगलों को सौंप दिये गये।
  • राणा जयसिंह ने (1687 से 1691 ई. के मध्य) गोमती नदी पर जयसमंद नामक एक झील का निर्माण भी करवाया।

✦ महाराणा अमरसिंह द्वितीय (1698—1710 ई.):—

  • इसके सिंहासनारोहण के समय डूंगरपुर, बांसवाड़ा और दिवलिये के रावल ने टीके का दस्तूर पेश नहीं किया.. अत: उन पर आक्रमण कर उन्हें दंडित किया।
  • महाराणा जयसिंह ने पुर, माण्डल और …. के परगने जो जजिया कर के बदले 1681 ई. की संधि के द्वारा मुगलों को सौंपे गये थे, एक लाख रूपये वार्षिक देना स्वीकार कर 1709 ई. में पुन: प्राप्त किये।
  • बादशाह औरंगजेब की मृत्यु के बाद 1707 ई. में हुए उत्तराधिकार युद्ध में महाराणा तटस्थ रहा, मगर जब मुअज्जम विजयी होकर बहादुरशाह प्रथम के नाम से मुगल सम्राट बना तो अमरसिंह ने अपने भाई बख्तसिंह को बधाई पत्र और उपहारों के साथ मुगल दरबार में भेजा।
  • 1708 ई. में महाराणा की पुत्री चन्द्रकुंवरी का विवाह जयपुर के शासक सवाई जयसिंह से हुआ, साथ ही एक अहदनामा भी जोधपुर, जयपुर और मेवाड़ के शासकों के मध्य हुआ।
  • जिसके अनुसार मेवाड़ की राजकुमारी से उत्पन्न पुत्र ही जयपुर का वारिस होगा तथा मेवाड़, जयपुर व जोधपुर के शासकों को अपना राज्य मुगलों से वापस लेने में सहायता देगा।
  • महाराणा ने सैन्य खर्च के लिए अपनी प्रजा से बलपूर्वक धन वसूल किया जिससे दो हजार भाटों को आत्महत्या करनी पड़ी।
  • महाराणा ने सभी सरदारों को सोलह (प्रथम श्रेणी के) और बत्तीस (द्वितीय श्रेणी) में विभाजित कर उनकी जागीर निश्चित कर दी।
  • परगनों का प्रबंध, दरबार का तरीका, सरदारों की बैठक और सीख के दस्तूर कायम किये; नौकरी, छटून्ट, जागीर आदि के निरीक्षण के नियम बनाये।
  • दफ्तर और कारखानों में सुव्यवथा स्थापित की गई।
  • सरदारों की तलवार बंधाई के नियम बनाये गये।
  • 1710 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।

✦ महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय (1710—1734 ई.):—

  • 1713 ई. में मुगल बादशाह फर्रूखसियर ने इसे 7000—7000 का मनसब दिया।
  • महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय के समय मराठों ने मेवाड़ और राजस्थान के अन्य क्षेत्रों में धावे मारने शुरू कर दिये।
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